भारत में भूमि सुधार (Land Reforms) क्या है? ,भूमि सुधार का महत्त्व ,आजादी से पहले और आज़ादी के बाद भूमि सुधार

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भारत में भूमि सुधार (Land Reforms) क्या है?

भारत में भूमि सुधार (Land Reforms) क्या है? ,भूमि सुधार का महत्त्व ,आजादी से पहले और आज़ादी के बाद भूमि सुधार
भारत में भूमि सुधार (Land Reforms) क्या है? ,भूमि सुधार का महत्त्व ,आजादी से पहले और आज़ादी के बाद भूमि सुधार

भूमि उत्पादन का महत्त्वपूर्ण कारक माना जाता है। यह सीमित और दुर्लभ संसाधन होता है।

भूमि सुधार से अभिप्राय है भूमि का पुनर्वितरण (Redistribution) जो सामाजिक न्याय में वृद्धि करता है और उपलब्ध भूमि में कुशलतम उपयोग को बढ़ावा देता है।


भारत में भूमि सुधार की क्या आवश्यकता है? 

भारत में कृषि योग्य भूमि अमेरिका के बाद सबसे अधिक है (लगभग 157 मिलियन हेक्टेयर) किंतु कृषि का GDP में योगदान मात्र 1/6 (14-15%) ही है, जो अत्यंत कम है।


नौति आयोग के अनुसार देश को 49% जनसंख्या अपनी जीविका के लिये कृषि पर निर्भर है। इस प्रकार भारतीय कृषि पर जनसंख्या का दबाव अधिक है जिस कारण प्रति किसान कृषि जोतों की उपलब्धता कम हुई है। 

NSO के सर्वे के अनुसार 1971 में भारत में प्रति किसान कृषि गए भूमि की उपलब्धता औसतन 228 हेक्टेयर थी जो वर्ष 2015 में घटकर मात्र 1.08 हेक्टेयर रह गई। इसी सर्वे के अनुसार भारत में लगभग 86% सीमांत और लघु किसान हैं जिनके पास औसतन 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि है। 


उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में भारत में भूमि सुधार आवश्यक माना गया है। भूमि सुधार कृषि में दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार होता है, जिससे न केवल कृषि उत्पादकता में वृद्धि होती है बल्कि ग्रामीण गरीबी में कमी और सामाजिक न्याय में वृद्धि होती है।

भारत में भूमि सुधार का महत्त्व 

  • यह देश में खाद्य सुरक्षा में वृद्धि करता है।

  • यह किसानों की आय में वृद्धि करता है।

  • कृषि उत्पादकता में वृद्धि

  • यह ग्रामीण गरीबों को काम करके सामाजिक न्याय को बढ़ाता है।

  • यह देश में रोजगार को बढ़ाता है।

  • यह देश में ग्रामीण विकास को बढ़ाता है।

  • रोजगार में वृद्धि

  • यह देश में उद्योगों तथा आधारभूत संरचना के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  • यह देश के आर्थिक समृद्धि को बढ़ाता है। 

आजादी से पहले भारत में भूमि सुधार 

  1. व्यवस्था रैयतवाड़ी
  2. स्थायी बंदोबस्त
  3. महालवाड़ी व्यवस्था 

ये तीनों सुधार कृषकों की अपेक्षा अंग्रेजों के हितों की अधिक पूर्ति करते थे। अंग्रेजों ने कंवल अपने राजस्व में वृद्धि करने के लिये इन तीनों सुधारों को लागू किया। 

अंग्रेजों द्वारा 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून पारित किया गया। इस कानून के अनुसार अंग्रेज बिना किसानों की सहमति के उनकी भूमि का अधिग्रहण कर सकते थे तथा अधिग्रहण के बाद किसानों को मिलने वाला मुआवजा बहुत कम होता था। 


अंग्रेजों ने शहरों में स्थापित लघु एवं कुटीर उद्योगों का विनाश करना शुरू किया क्योंकि वे ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों को भारत में विक्रय करने के लिये एकाधिकार चाहते थे। 


लघु एवं कुटीर उद्योगों के विनाश से जनसंख्या का पलायन शहरों से गाँवों की ओर हुआ, इससे कृषि भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा और कृषि जोतों का आकार कम हुआ जिससे कृषि उत्पादकता में कमी आई और ग्रामीण गरीबी में वृद्धि हुई। इस प्रकार आजादी के बाद सबसे आवश्यक और महत्त्वपूर्ण भूमि सुधार को ही माना गया जिसे आजादी के तुरंत बाद वर्ष 1948 में जमींदारी उन्मूलन के रूप में लागू किया गया। 

आज़ादी के बाद भूमि सुधार 

आजादी के बाद भारत में दो प्रकार के भूमि सुधार लागू किये - 


  • तकनीकी सुधार :- यह एक पूंजीवादी विचारधारा है , हरित क्रांति के बाद देश में कृषि का एक नया दौड़ा गया जिसमें कृषकों को बीज, उर्वरक, सिंचाई के साधन इत्यादि का प्रयोग करके कृषि उत्पादन में वृद्धि करना था  

  • संरचनात्मक सुधार :- यह एक समाजवादी विचारधारा है, कृषि भूमि के पुनर्वितरण को बढ़ावा देकर सामाजिक न्याय में वृद्धि करना।

 

भारत के लिये तकनीकी सुधार से अधिक महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक सुधार है जिसे निम्नलिखित रिपोर्ट के आधार पर माना जा सकता है- 

1. विश्व बैंक की रिपोर्ट: Systematic country diagnostic report के अनुसार भारत के लिये कृषि में संरचनात्मक सुधार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि तकनीकी सुधार केवल सीमित मात्रा में कृषि उत्पादन को बढ़ाता है जबकि संरचनात्मक सुधार न केवल कृषि उत्पादकता में वृद्धि करता है बल्कि कृषि का समग्र विकास करता है।

2.NSO के सर्वे के अनुसारः भारत में लगभग 56% ग्रामीण परिवारों के पास स्वयं की कृषि भूमि नहीं है।


इस प्रकार उपर्युक्त रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में पहले कृषि संरचनात्मक सुधार की आवश्यकता, तत्पश्चात तकनीकी सुधार की आवश्यकता है।

आज़ादी के बाद भूमि सुधार 

जमींदारी उन्मूलन

आजादी के बाद 1948 में देश में जमींदारी उन्मूलन कानून के रूप में पहली बाद भूमि सुधार को लागू किया गया। इसे सर्वप्रथम मद्रास में लागू किया गया और 1972 तक पूरे भारतवर्ष में लागू कर दिया गया। इस कानून के अंतर्गत कृषि में जमींदारों और मध्यस्तों का उन्मूलन किया गया तथा भूमि के अधिकार को राज्य सरकार को सौंपा गया। इस प्रकार किसानों को प्रत्यक्ष रूप से राज्य सरकार के रूप में लाया गया। आजादी के बाद लागू सभी भूमि सुधारों में यह सबसे सफल भूमि सुधार है। 

लगान का विनियमनः

आजादी से पहले अंग्रेज किसानों से अत्यधिक मात्रा में लगान वसूलते थे। यह कुल उपज का लगभग 70-80% होता था। यह परंपरा आजादी के बाद जारी रही तथा भू-स्वामी काश्तकारों से अधिक लगान वसूलते थे। पूर्व योजना आयोग के अनुसार लगान की दर 20% से अधिक नहीं होनी चाहिये अतः सरकार द्वारा लगान का विनियमन संबंधित कानून पारित किया गया जिसके अंतर्गत लगान की दर घटाकर 20-25% को गई। 

यह कानून असफल रहा,कारण 

  1. अधिकांश अनुबंध मौखिक रूप से किये जाने लगे। 
  2. काश्तकारों में शिक्षा और जागरूकता का अभाव। 
  3. भारत में लगभग 56% ग्रामीण परिवारों के पास कृषि भूमि नहीं।

काश्तकारी सुधार


काश्तकारः इन्हें बटाईदार भी कहा जाता है। काश्तकार वे होते हैं जिनके पास स्वयं की कृषि भूमि नहीं होती। वे भू-स्वामी से किराये पर कृषि जोत लेकर उस पर कृषि कार्य करते हैं; बदले में भू-स्वामी को निश्चित लगान या किराया चुकाते हैं।

काश्तकार तीन प्रकार के होते हैं- 

  1. दखलकारी काश्तकार (Occupancy terunt): लिखित अनुबंध (दीर्घकालिक) 
  2. स्वैच्छिक काश्तकार (Tenant at will): मौखिक अनुबंध 
  3. उपकाश्तकार (Subtenant): मौखिक अनुबंध 


उपकाश्तकार 

दखलकारी काश्तकार स्थायी काश्तकार होते हैं जबकि स्वैच्छिक और उपकाश्तकार अस्थायी काश्तकार होते हैं क्योंकि उन्हें आसानी से भूमि से बेदखल किया जा सकता है, जबकि दखलकारी काश्तकार को कंवल कानूनी प्रक्रिया से ही भूमि से बेदखल किया जा सकता है सरकार द्वारा काश्तकारों को सुरक्षा और स्थायित्व देने के लिये दो कानून लाए गए-

1. काश्तकारों को सुरक्षा संबंधी कानून

2. काश्तकारों का स्थायित्व संबंधित कानून (ऑपरेशन बरगा: पश्चिम बंगाल और केरल में सफल)


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